धर्म

रहमतों औऱ बरकतों का महीना है रमज़ान- निज़ाम खान

समाजसेवी निजाम खान से रहमतों बरकतों से सराबोर रमजानुल मुबारक की विशेषता और महत्व तथा पुण्य नेकी प्राप्त कैसे लाभ उठाएं खास बातचीत। उन्होंने विस्तृत रूप से माह – रमजान के बारे में प्रकाश डाला।

रोजा – अरबी के शौम शब्द से बना है जिसका मतलब रुक जाना होता है शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति से एक निश्चित समय के लिए रुक जाना है और यह अमल (कार्य)मुसलमान रमजान माह में करता है।

रमजान वह महीना है जिसमें कुरआन उतारा गया जो इंसानों के लिए सर्वथा मार्गदर्शन है और स्पष्ट शिक्षाओं पर आधारित है जो सीधा मार्ग दिखाने वाली और सत्य एवं असत्य का अंतर खोल कर रख देने वाली है। इसलिए अब जो रमजान महीने को पाए उस पर अनिवार्य है इस पूरे महीने के रोजे रखे (कुरआन सूरह 2आयत185)

रमजान का पूरा महीना पूरे वातावरण को पुण्य(नेकी)और ईश परायणता(परहेजगारी)से रूह (आत्मा)को सराबोर कर देती है पूरी कौम में ईश भय की खेती हरी -भरी हो जाती है।हर इंसान (औरत व मर्द)स्वयं पाप से बचने की कोशिश करता है।हर व्यक्ति को रोजा रख कर गुनाह करते हुए शर्म आती है और हर एक के हृदय में स्वयं में इच्छा बलवती होती है कि कुछ भलाई का कार्य करे किसी भूखे को खाना खिलाए किसी नंगे को कपड़ा पहनाएं,किसी मुसीबत के मारे की मदद करें।ये सब बाते वर्ष के अन्य 11महीने की अपेक्षा बरकतों रहमतों वाला माह- ए -रमजान के महीने में कई गुना बढ़ जाती है।इस महीने में भलाइयां आम हो जाती है और बुराइयों से लोग बचते भी है और दूसरों को बुराइयों से रोकते भी है एक प्रकार से ईश भय का माहौल तैयार हो जाता है।

रोजा का असल मकसद है झूठ से बचना अंतिम ईश्दूत हजरत मुहम्मद सल्लाहु अलैहि वसल्लम* “का कथन है। *जिस किसी ने रोजा रख कर झूठ बोलना और झूठ पर अमल करना ही ना छोड़ा तो उसका खाना और पानी छुड़ा देने की अल्लाह ताअला को कोई आवश्यकता नहीं

बहुत से रोजेदार ऐसे है कि रोजे से भूख प्यास के सिवा उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ता,बहुत से रातों को खड़े रहने वाले(रातभर जागकर इबादत करने वाले)ऐसे है कि रतजगे के अलावा उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ता।

हजरत मुहम्मद सल्लललाहुअलैहिस्सलाम के इन कथनों का मतलब साफ है कि खाली भूखा और प्यासा रहना इबादत नहीं बल्कि इबादत का आधार असल इबादत है “अल्लाह (ईश्वर)के खौफ के कारण से ईश्वर के बनाए हुए नियमों को न तोड़ना और ईश प्रेम के लिए हर उस कार्य की तरफ शौक से बढ़ना जिसमें अल्लाह की भलाई शामिल हो और अपनी नफ़्स (इंद्रियों) को नियंत्रण करना। जहां तक संभव हो दूसरों की मदद करना।किसी के साथ अन्याय व अत्याचार ना करना।किसी के दिल को न दुखाना।पड़ोसियों का ख्याल रखना चाहे वह किसी भी जाति धर्म संप्रदाय का हो।किसी का हक न मारना आदि ये सब इबादत है।इस इबादत से जो व्यक्ति गाफिल(लापरवाह) रहा उसने बिना मतलब अपने पेट को भूख-प्यास की निरर्थक तकलीफ दी।अपनी इंद्रियों (नफ़्स )को दुःख पहुंचाया अपने आपको उसने यातना दी,ईश्वर की चाहत कब थी कि बारह से पंद्रह घंटे के लिए उसका खाना पीना छुड़ाता।

*रोजा गुनाहों से बचने की ढाल हैं* रोजा ढाल की तरह है जिस तरह ढाल दुश्मनों के वार से बचने के लिए है उसी तरह रोजा भी शैतान के वार से बचने के लिए है।जब भी कोई व्यक्ति रोजे से हो तो उसे चाहिए कि उस ढाल का प्रयोग करे और उससे कोई लड़े तो उससे कह देना चाहिए कि भाई मै रोजे से हूँ।मेरे बारे में ये मत समझना की मै तुम्हारे इस काम में हिस्सा लूंगा।यही सब बाते अगर इंसान के अंदर नहीं उतरती है तो उसके रोजा रखने से कोई फायदा नहीं है।

आदमी जितनी अधिक नेक नीयत के साथ इस रमजान महीने में अमल करेगा उसी तरह बरकतों, रहमतों का अधिक से अधिक फायदा उठाएगा और अपने दूसरे भाइयों को फायदा पहुंचाएगा और जिस तरह इस महीने के लक्षणों(इबादतों) या नेक कार्यों को बाकी के ग्यारह महीने में बाकी रखेगा उतना ही फूले, फलेंगे और अगर व्यक्ति खुद को अपने अमल से उसको सीमित कर ले तो ये उस व्यक्ति की गलती है।। अल्लाह के बरकतों और रहमतों से महरूम(वंचित) रह जाएगा।

 

समाजसेवी- निजाम खान

राष्ट्रीय सामाजिक सेवा संघ सुल्तानपुर।

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